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गुरु पूर्णिमा/व्यास पूर्णिमा के महान पर्व पर विशेष आलेख – श्रीमती कुमुदिनी द्विवेदी …

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भारतीय संस्कृति में गुरु अर्थात शिक्षक को प्रथम पूज्य माना गया है। तभी किसी संत कवि ने कहा है कि- प्रथम गुरु को वंदना,दूजे आदि गणेश।तीजे मां शारदा कंठ विराजो प्रवेश।।
गुरु पूर्णिमा दिवस मनाने की परंपरा गुरुओं के प्रति ऐसी भावना को दर्शाता है।हमारा देश गुरु के प्रति असीम निष्ठा रखता है ।
भारतीय संस्कृति में ऋणों की व्याख्या में एक ऋण गुरु ऋण भी है। इससे उऋण होना संभव नहीं है। गुरु का शिष्य को दिया गया ज्ञान-दान इतना महान होता है कि उसके समतुल्य कोई नहीं है। इसलिए गुरु के प्रति जीवन पर्यंत सम्मान का भाव होना चाहिए।
सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खंड।
तीन लोक ना पाइए और 21 ब्रह्मांड।।
अर्थात सात दीप, नौ खंड, तीन लोक, और 21 ब्रह्मांड में सद्गुरु के समान हितकारी कोई नहीं। इसलिए गुरुओं को भगवान से भी ऊंचा दर्जा दिया गया है।
वास्तव में शिष्य तो कच्चे मिट्टी के समान होते हैं और उन्हें स्वरूप देना गुरु के उपर निर्भर करता है।इस कारण सबसे पहले गुरु का ही स्थान होता है ।
गुरु की महिमा के विषय में मुझे एक दोहा का सहज ही स्मरण हो रहा है।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुविष्णु:गुरुर्देवो महेश्वर:।
गुरु: साक्षात् परमब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नम:।।
सार यह है कि गुरु ही साक्षात ब्रह्मा है, ईश्वर है यह दोहा ही अपने आप में संपूर्ण है और गुरु महिमा की जितनी भी व्याख्या की जाए वह इसके ही प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष स्वरूप में समाहित है।
हमारे वेद पुराणों में भी सदा ही गुरु को साक्षात ईश्वर का अंश रूप माना गया है। गुरु ना केवल जीवन यापन के सुलभ श्रेष्ठ व प्राप्त साधनों हेतु समुचित ज्ञान प्रदान करता है अपितु वह मानव जीवन लक्ष्य रूपी परम ब्रह्म ज्ञान प्रदान करने का सामर्थ रखता है। जिसे प्राप्त कर लेने के पश्चात और कुछ ज्ञान अन्वेषण की आवश्यकता ही नहीं होती अर्थात मोक्ष रूपी परम शांति व परम आनंद की प्राप्ति हो जाती है। सभी शंकाओं व समस्याओं का समाधान गुरु का ज्ञान प्रदान करता है। गुरु से ही प्रेरणा है, गुरु से ही मार्गदर्शन है, गुरु से ही उर्जा है, गुरु से ही सामर्थ है, गुरु से ही लक्ष्य है और गुरु से ही सफलता है।
गुरु ईश्वर से साक्षात्कार करने का एक अटूट सेतु है जो केवल और केवल मोक्ष रूपी जीवन कल्याण का मार्ग दिखाता है। जिस प्रकार कोई पथिक परिश्रम कर फल लगे वृक्षों से अपने सामर्थ्य आवश्यकतानुसार फल प्राप्त करता है और तृप्त होता है। उसी प्रकार जीवन लक्ष्य के मार्ग में ज्ञान प्राप्ति हेतु जिसकी जैसी योग्यता लग्न व समर्पण होती है उसे उसके अनुरूप गुरु से वैसा ही आशीर्वाद प्राप्त होता है।
वास्तव में मैं गुरु की महिमा का पूर्ण वर्णन करने का सामर्थ ही नहीं रखती क्योंकि गुरु की महिमा का गान करते करते तो वेद पुराण भी “नेति-नेति” कह कर थक जाते हैं, तो मुझ जैसे साधारण मनुष्य की क्षमता तो अत्यंत नगण्य ही है।
जब कोई शिष्य अपने गुरु चरण में पूर्ण विश्वास व श्रद्धा के साथ सर्वस्व समर्पित कर सेवा में प्रस्तुत हो जाता है तो उस शिष्य के लिए साक्षात ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति के द्वार खुल जाते हैं। और कुछ लक्ष्य प्राप्ति शेष नहीं रहता। गुरु अज्ञानता रूपी अंधकार के लिए ज्ञान रूपी प्रकाश है इसलिए गुरु की सेवा ही साक्षात ईश्वर की सेवा है। गुरु के आशीर्वाद से ही जीवन में सफलता व आनंद की प्राप्ति हो सकती है।
स्मरण रहे गुरु हमारे जीवन में अनेक स्वरूपों में प्रस्तुत हो सकते हैं जैसे मां के रूप में जीवन की प्रथम गुरु की प्राप्ति होती है।*जो हमें बोलना चलना जैसे भाव से शिक्षा प्रारंभ कर शून्य से अनंत सामर्थ्यवान बनाती है ।पिता के स्वरूप में गुरु पालन व सुरक्षा करते हुए कर्तव्य बोध, आत्मविश्वास, सुसंस्कार जैसे भाव को जीवन में प्रकट करते हैं। विद्यालयों में गुरु के रूप में जीवन दर्शन, जीवन लक्ष्य जैसे विविध ज्ञान का बोध होता है। जीवन के पग-पग पर हमें गुरु के स्वरूप का बोध हो सकता है,यदि हम हमें सकारात्मक शिक्षाओं को सीखने व ग्रहण करने की सतत लग्न व समर्पण हो तो।
कपिल मुनि ने तो नदियों पर्वतों आदि जड़ तत्वों को भी गुरु मानकर शिक्षा प्राप्त कर ली थी।
अतः आज गुरु पूर्णिमा व्यास पूर्णिमा के पवित्र क्षणों में मैं अपने आदरणीय माता,पिता व परम आराध्य परम पूज्य गुरुदेव जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी 1008श्री अविमुक्तेश्वरानंद जी महाराज को स्मरण कर उनका वंदन,नमन अभिवादन करती हूं।
चरणों में समर्पित भाव …
गुरु पद पंकज मानकर,
चरण करें स्पर्श।
गुरु के आशीर्वाद से,
जीवन में उत्कर्ष।।

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