छत्तीसगढ़

लोक -गायन और लोक- नृत्य में विविधता छत्तीसगढ़ की पहचान, यहां अनेक जातियाँ निवास करती हैं, इनमें राउत जाति (यादव) अपनी विशेषताओं के कारण अलग महत्व रखती है: डॉ. सुरेश यादव

कला, संस्कृति और संस्कारों के गढ़ छत्तीसगढ़ के कोने-कोने में परम्पराओं ने अपनी देहली सजा रखी है । छत्तीसगढ़ एक ऐसा राज्य है जिसकी विविधता ही इसकी पहचान है।छत्तीसगढ़ का नाम यहाँ के छत्तीस गढ़ के कारण पड़ा है।इस राज्य के सभी भागों में संस्कृति, खान-पान, वेशभूषा में विविधता आसानी से देखी जा सकती है।

लोक -गायन और लोक- नृत्य में विविधता छत्तीसगढ़ की पहचान है।छत्तीसगढ़ में अनेक जातियाँ निवास करती हैं।इन जातियों में राउत जाति (यादव) अपनी विशेषताओं के कारण अलग महत्व रखती है।राउत जाति अन्य जातियों की तरह अलग-अलग क्षेत्रों में बाहर से आकर छत्तीसगढ़ में बस गई है। गोपालन और दुग्ध व्यवसाय करने वाली इस जाति को यहाँ के सामाजिक,सांस्कृतिक कार्यों में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। राउत शब्द वीरता और बहादुरी का द्योतक है।श्री कृष्ण राउत जाति के आराध्य देव हैं।इन्हें ही राउत जाति के लोग अपना पूर्वज मानते हैं।यादव जाति की स्थापना का श्रेय महाराज यदु को जाता है।प्रमुख रूप से अहीरों के तीन सामाजिक वर्ग हैं- यदुवंशी,नंदवंशी व ग्वालवंशी। यादव (अहीर) जाति के लोगों को राउत,यदु, ठेठवार,गोपाल,प्रधान आदि नामों से भी जाना जाता है।राउत जाति के लोग यदु कुल में जन्म लेकर अपने को धन्य समझते हैं और इस कुल में पुनः जन्म लेने के लिए अपने आराध्य से प्रार्थना करते हैं-
एहू जनम, ऊहू जनम, बार-बार जनम अहीर हो। चिखला काँदो म कपड़ा भींजे, गोरस म भींजे सरीर हो ।
यादव जाति के लोग जन्म से ही मेहनती एवं उत्सवधर्मी होते हैं।हाड़ -तोड़ श्रम करने के बाद मनोरंजन का कोई- न- कोई रास्ता निकाल ही लेते हैं।मनोरंजन खेल के माध्यम से हो या नृत्य के माध्यम से, वे कोई भी अवसर नहीं छोड़ते हैं।
राउत नाच या राउत -नृत्य यादव समुदाय द्वारा दीपावली पर किया जाने वाला पारंपरिक नृत्य है।राउत नाचा छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध लोक नृत्यों में से एक है। नृत्य का यह उत्सव देवउठनी एकादशी से प्रारंभ होता है और एक पखवाड़े तक चलता है। नृत्य में राउत लोग विशेष वेशभूषा पहनकर,हाथ में सजी हुई लाठी लेकर टोली में गाते और नाचते हुए निकलते हैं।गाँव में प्रत्येक गृहस्वामी के घर नृत्य के प्रदर्शन के पश्चात उनकी समृद्धि की कामना युक्त पदावली गाकर आशीर्वाद देते हैं।दोहों के माध्यम से समाज में एक अलग तरह का संदेश दिया जाता है।इन दोहे में सामयिक मुद्दों की झलक दिखती है। राउत
अपने दोहों में जहाँ समाज की विसंगतियों पर करारा प्रहार करते हैं वहीं अच्छी बातों की सराहना भी करते हैं।इनके दोहों में सामाजिकता भी होती है, प्रगतिशीलता भी होती है। भक्ति, नीति,हास्य तथा पौराणिक संदर्भों से युक्त दोहे मनभावन होते हैं। नृत्य में पशुधन की वृद्धि, फसल उत्पादन बढ़ाने की कामना के साथ ही सभी की मंगलकामन व्यक्त की जाती है।जैसे-
धन गोदानी भुईया पावा,पावा हमर असीस हो।
नाती पूत ले घर भर जावे,जीवा लाख बरीस हो।।
टिमकी ,मोहरी,निशान,दफड़ा, ढ़ोलक, सिंगबाजा आदि इस नृत्य के मुख्य वाद्य होते हैं। लोहे के वजनी फालों (फार) का प्रयोग भी वाद्य यंत्र के रूप में अद्भुत ढंग से किया जाता है।दो फार एक -एक हथेली में होते हैं जो आपस में इस प्रकार टकरा कर बजाये जाते हैं कि श्रोता झंकृत हो जाये। गड़वा बाजा की धुन पर नर्तक दल, कदम से कदम मिलाकर नृत्य करते हैं।राउत नाचा में पहनी
जाने वाली खुमरी उसकी शोभा को बढ़ा देती है।राउत नाचा समूह -नृत्य होता है, जिसमे प्रमुख रूप से पुरुष तथा बालक सम्मिलित होते हैं। मनोरंजन को ध्यान में रखकर कुछ पुरुष स्त्री का रुप धारण कर नृत्य में भाग लेते हैं जिन्हें परी कहा जाता है।आमतौर पर नृत्य के साथ गाये जाने वाले दोहों में जीवन शैली का वर्णन किया जाता है।
राउत नाचा भगवान कृष्ण के साथ किए गए गोपियों के नृत्य के समान है।समूह के कुछ सदस्यों द्वारा गीत गाया जाता है,कुछ वाद्य यंत्र बजाते हैं और कुछ सदस्य चमकीले और रंगीन कपड़े पहनकर नृत्य करते हैं।मुख पीले रंग से पुता हुआ,चेहरे में रामरज लगाए, भौहों में अभ्रक लगाए, आँखों में काजल लगाए,धोती के पहनावे के साथ कौड़ियों के कमर पट्टे ,सितारे जड़ें हुए चमकीले मखमली जैकेट,सिर पर कसी पगड़ी के ऊपर सुशोभित मोर पंखकी कलगी,गले मे तिलरी, पुतरी , बहकर,करधन ,पेटी झाल,कांछा,कलदार,जजेवा,मोजा, गेटिस व माला धारण किए हुए नर्तक ढोलक की थाप में झूम-झूम कर नाचते हैं।नर्तक हाथों में रंगीन और सजी हुई नोई और तेंदू की लाठी और धातु के ढाल के साथ अपनी कमर और पैरों में घुँघरू बाँधे हुए साक्षात वीर एवं श्रृंगार रस के अवतार दिखाई देते हैं।नृत्य के दौरान हवा में गोता लगाकर, पलटी मारकर,अपने शरीर पर सात -आठ लोगों को चढ़ाकर ,अपने छाती पर ईटों को फोड़कर शारीरिक करतब भी दिखाते हैं।नर्तक दल इस नृत्य में बहादुर योद्धाओं के समान अपने शौर्य का प्रदर्शन करते हैं।इस प्रकार राउत नर्तक विभिन्न वस्त्राभूषणों को धारण कर नृत्य में भाग लेते हैं और लोगों का मन मोह लेते हैं।
इस अवधि में जगह -जगह मड़ई मेला का आयोजन किया जाता है । दूर-दूर से अनेक नर्तक दल अपने साजो- सामान के साथ आते हैं।खुले मैदान के बीच में एक लकड़ी का खंभा गाड़ दिया जाता है ,जिसे मड़ई कहा जाता है ।नर्तक दलों के समूह वहाँ इकट्ठे होते हैं और उस स्थान पर गड़े लकड़ी के खंभे के चारों ओर घूम-घूमकर दोहा कहते हुए नाचते हैं।
आज के परिवेश में इस नृत्य ने महोत्सव का रूप धारण कर लिया है।यह यदुवंशियो के शौर्य का प्रतीक माना जाता है।महोत्सव में अनुशासन,वेशभूषा,
नृत्य,संगीत,झाँकी और संख्या के आधार पर नर्तक दलों को विभिन्न आकर्षक पुरस्कारों से सम्मानित किया जाता है इस तरह राउत नाच महोत्सव का आयोजन संगठन एवं सामाजिक समरसता की भावना को दृढ करता है।
डॉ. सुरेश यादव
जांजगीर ( छ. ग.)

Related Articles